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श॒क॒मयं॑ धू॒ममा॒राद॑पश्यं विषू॒वता॑ प॒र ए॒नाव॑रेण। उ॒क्षाणं॒ पृश्नि॑मपचन्त वी॒रास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śakamayaṁ dhūmam ārād apaśyaṁ viṣūvatā para enāvareṇa | ukṣāṇam pṛśnim apacanta vīrās tāni dharmāṇi prathamāny āsan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श॒क॒ऽमय॑म्। धू॒मम्। आ॒रात्। अ॒प॒श्य॒म्। वि॒षु॒ऽवता॑। प॒रः। ए॒ना। अव॑रेण। उ॒क्षाण॑म्। पृश्नि॑म्। अ॒प॒च॒न्त॒। वी॒राः। तानि॑। धर्मा॑णि। प्र॒थ॒मानि॑। आ॒स॒न् ॥ १.१६४.४३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:43 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:22» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:43


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ब्रह्मचर्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! मैं (आरात्) समीप से (शकमयम्) शक्तिमय समर्थ (धूमम्) ब्रह्मचर्य कर्मानुष्ठान के अग्नि के धूम को (अपश्यम्) देखता हूँ (एना, अवरेण) इस नीचे इधर-उधर जाते हुए (विषूवता) व्याप्तिमान् धूम से (परः) पीछे (वीराः) विद्याओं में व्याप्त पूर्ण विद्वान् (पृश्निम्) आकाश और (उक्षाणम्) सींचनेवाले मेघ को (अपचन्त) पचाते अर्थात् ब्रह्मचर्यविषयक अग्निहोत्राग्नि तपते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धर्म (प्रथमानि) प्रथम ब्रह्मचर्यसञ्ज्ञक (आसन्) हुए हैं ॥ ४३ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् जन अग्निहोत्रादि यज्ञों से मेघमण्डलस्थ जल को शुद्ध कर सब वस्तुओं को शुद्ध करते हैं इससे ब्रह्मचर्य के अनुष्ठान से सबके शरीर, आत्मा और मन को शुद्ध करावें। सब मनुष्यमात्र समीपस्थ धूम और अग्नि वा और पदार्थ को प्रत्यक्षता से देखते हैं और अगले-पिछले भाव को जाननेवाला विद्वान् तो भूमि से लेके परमेश्वरपर्यन्त वस्तुसमूह को साक्षात् कर सकता है ॥ ४३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ ब्रह्मचर्यविषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या अहमाराच्छकमयं धूममपश्यमेनाऽवरेण विषूवता धूमेन परो वीराः पृश्निमुक्षाणं चापचन्त तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्नभवन् ॥ ४३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शकमयम्) शक्तिमयम् (धूमम्) ब्रह्मचर्यकर्मानुष्ठानाग्निधूमम् (आरात्) समीपात् (अपश्यम्) पश्यामि (विषूवता) व्याप्तिमता (परः) परस्तात् (एना) एनेन (अवरेण) अर्वाचीनेन (उक्षाणम्) सेचकम् (पृश्निम्) आकाशम् (अपचन्त) पचन्ति (वीराः) व्याप्तविद्याः (तानि) (धर्म्माणि) (प्रथमानि) आदिमानि ब्रह्मचर्याख्यानि (आसन्) सन्ति ॥ ४३ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वज्जना अग्निहोत्रादियज्ञैर्मेघमण्डलस्थं जलं शोधयित्वा सर्वाणि वस्तूनि शोधयन्ति। अतो ब्रह्मचर्याऽनुष्ठानेन सर्वेषां शरीराण्यात्ममनसी च शोधयन्तु। सर्वे जनाः समीपस्थं धूममग्निमन्यं पदार्थञ्च प्रत्यक्षतया पश्यन्ति परावरज्ञो विद्वाँस्तु भूमिमारभ्य परमेश्वरपर्यन्तं वस्तुसमूहं साक्षात्कर्त्तुं शक्नोति ॥ ४३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान लोक अग्निहोत्र इत्यादी यज्ञांनी मेघमंडलातील जल शुद्ध करून सर्व वस्तू शुद्ध करतात. म्हणून ब्रह्मचर्याच्या अनुष्ठानाने सर्वांचे शरीर व आत्मे आणि मन शुद्ध करावे. सर्व माणसे जवळ असलेला धूर व अग्नी तसेच इतर पदार्थ प्रत्यक्ष पाहतात; पण मागचे व पुढचे भाव जाणणारा विद्वान भूमीपासून परमेश्वरापर्यंत वस्तू समूहाला साक्षात करू शकतो. ॥ ४३ ॥